मैं मिटटी का बना एक गोलाकार वस्तु हूँ
मेरे सिर के ऊपर करीब दो इंच की जगह
खुली छोड़ दी जाती है, इस जगह से
पैसों का आदान - प्रदान होता है
अच्छे और बुरे वक्त के लिये
मुझे गुल्लक कहते है
एक माँ का गुल्लक मैं था
माँ, जब भी मौका मिलता, डालती मुझमें
एक रूपये का सिक्का
मेरा वजन बढ़ रहा था
मेरे बढ़ते वजन का ध्यान रख
जिस जगह से माँ पैसे डालती
पुत्र उसी जगह से पैसे निकालता
ऐसे ही कुछ दिनों तक चलता रहा
माँ-बेटे का आदान प्रदान
एक दिन माँ ने सौंप दिया मुझे बेटे के हाथों
माँ का सिक्के डालना बंद हुआ
बंद हुआ बेटे का सिक्के निकालता
एक दिन पुत्र बालिग हुआ, कमाने लगा
माँ को पैसे देने लगा
माँ उन पैसों से हर रोज देती बेटे को
एक रूपये का सिक्का
मेरा बंद खाता फिर से खुला
मेरा वजन फिर से बढ़ने लगा
एक दिन माँ न रही
पुत्र को लगा मानों अंत हुआ
विश्व के हर आदान - प्रदान का
माँ का दिया स्नेह पात्र बनी
पुत्र की एक मात्र सम्पत्ति
ऐसी सम्पत्ति जो केवल बढ़ती है
घटती कभी नहीं