उस रात, नींद में जब मेरी आंख खुली
घने जंगल में घिरा पाया मैने मुझको
लगा दिशा खो बैठा हूँ
एक ने मुझसे पूछा
कौन हूँ, कहां से आ रहा हूँ
घर का पता पूछा, मैं बता न पाया
बोला, अजीब इंसान हूँं, अपने घर का पता भी नही जानता
रात बढ़ रही थी, मन का सन्नाटा गाढ़ा हो रहा था
यादें भटक रही थी, अचानक, दुसरे ने पूछा
किसका बेटा हूँ
किसका बेटा हूं सुनकर, मेरी याद ने करवट ली
याद आ गई मुझे, किसका बेटा हूँ मै
याद आते ही, नींद टूटी, और मैं उठ बैठा
अंधेरे मे कोई देख न पाया मेरी घबड़ाहट को
मेरे सिवा गहन अंधकार में
पुरानी यादों ने दस्तक दी मन के आंगन में
याद आई एक शाम की
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेषन
मिर्गी से आक्रांत एक युवक
घिरा हुआ था चारो ओर से
कोई जूता सुंघा रहा था तो कोई चाभी
युवक को जब होश आया, बड़बडाता हुआ उठा
कपड़े झाड़े, कंघी की, फिर बोला
मुझे ऐसा-वैसा ना समझो बड़े घर का बेटा हूँ मै
घर जाना है, मां इंतजार कर रही है
किसी ने कैफियत नहीं मांगी थी, युवक ने फिर भी दी
पता नही किसको, शायद अपने स्वाभिमान को
याद आई मुझे उस दिन की भी
जिस दिन मैं बता न पाया था
एक अजनबी को अपने घर का पता
हैरान हुआ अजनबी मेरी अज्ञानता पर
शायद मन ही मन उसने कहा
कोई कैसे रह सकता है अपने घर में अजनबी बनकर